मत आना अतिथि

मत आना अतिथि

भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता समझा जाता है। कहा गया है–अतिथि देवो भव। प्राचीन कथाओं में भी पढ़ा है कि घर आए अतिथि की सेवा में लोग कोई कसर नहीं छोड़ते थे। चाहे उन्हें स्वयं भूखा रहना पड़े या अन्य कष्ट उठाना पड़े। परंतु पिछले कुछ समय से कोरोना ने आकर अतिथि और आतिथ्य की परंपरा की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। न तो कोई किसी के घर अतिथि बन कर जा रहा है और न चाहता है कि कोई उसके घर अतिथि बनकर आए। अतिथि डर रहा है कि कहीं मेरी वजह से किसी को कोरोना न हो जाए। कोई आ जाए तो लोग दुविधा में पड़ जाते हैं कि अतिथि को अंदर घुसने दें या नहीं।

हमारे पड़ोस में एक कॉलेज की प्रोफेसर रहती हैं। अब रिटायर्ड हो चुकी हैं। उनके कई विद्यार्थी अब भी उनसे संपर्क में हैं। उन्हीं में से एक शिष्या उनसे मिलने व उनका हाल पूछने पहुँची। परंतु जिस दिन से कोरोना हुआ है उस दिन से वे अज्ञातवास में हैं। उन्हें किसी ने नहीं देखा। बेचारी शिष्या उनके लिए बिरयानी बना कर लाई। परंतु उनके बेटे ने साफ मना कर दिया कि उनसे कोई नहीं मिल सकता। उसने बिरयानी का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा–‘मैम को यह पसंद है। इसलिए मैं यह उनके लिए स्पेशल बनाकर लाई हूँ।’

बेटा अंदर गया और डिब्बा डस्टबीन में खाली किया। लौट कर कहा–‘मैम आपको शुक्रिया कह रही हैं।’

बेचारी शिष्या अपना-सा मुँह ले कर लौट गई।

मेरी मित्र की माता जी नब्बे वर्ष की हैं। वे सभी से कहती थीं–‘तुम बहुत दिनों बाद आए। तुम्हारा मन नहीं करता मुझसे मिलने का? कोई किसी का नहीं। लोगों में एक-दूसरे के लिए स्नेह तो बचा ही नहीं।’ आदि-आदि।

सभी को लगता था कि शायद उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। परंतु अब उन्होंने ऐसा कहना छोड़ दिया है। उन्हें भी कोरोना से डर लगता है। अब वे किसी से आने के लिए नहीं कहती। शायद कोरोना ने उनकी मानसिक स्थिति ठीक कर दी है।

कोरोना ने भाई-बहन, माता-पिता और नजदीकी रिश्तों में भी तनाव उत्पन्न कर दिया है। एक बहन को कोरोना-काल में तनाव हो गया। उनकी मानसिक स्थिति को देखते हुए उनके बेटे ने उनकी बहन को फोन किया–‘मौसी जी नमस्ते! माँ घर में बैठे-बैठे परेशान हो गई हैं। अगर वे आपसे मिलेंगी तो स्वस्थ हो जाएँगी। आप घर पर ही हो? मैं कल ही आकर उन्हें दो-तीन दिन के लिए आपके पास छोड़ जाऊँगा।’

दूसरी तरफ कुछ पल चुप्पी रही। फिर सधा-सा उत्तर आया–‘देखो बेटा पप्पू! तुम्हारे मौसा जी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती। कोरोना के कारण मैं भी कहीं आ-जा नहीं रही। न ही किसी से मिलती-जुलती हूँ। कोरोना ठीक हो जाएगा तो तुम अपनी माँ को छोड़ जाना। बुरा मत मानना कोरोना है।’

इतना कह कर उन्होंने फोन काट दिया। बेचारा पप्पू अवाक् रह गया। एक मित्र ने मुझे कई बार फोन कर अपने घर आमंत्रित किया। मैं भी कोरोना-काल में घर बैठे बोर हो गई थी। इसलिए उसके घर जाने का प्रोग्राम बना लिया। मैंने सुबह ही फोन कर उसे अपने आने की सूचना दी–‘मैं शाम को आपसे मिलने आऊँगी।’ उन्होंने बहुत उत्साहित हो कर कहा–‘अवश्य आइए! अपने पति को भी साथ लाइए। शाम की चाय हम साथ-साथ पिएँगे।’

मैंने पति से भी आग्रह किया। हमने दोपहर के भोजन में भी ज्यादा नहीं खाया ताकि उनके चाय-नाश्ते का भरपूर आनंद उठा सकें। अभी हम दोपहर-भोजन के बाद नींद ले रहे थे कि साढ़े तीन बजे फोन की घंटी बजी। मेरे मित्र का फोन था और वह दबी आवाज में कह रहे थे–‘आप आज मत आना। हमारे घर दिल्ली से कोई मित्र सपरिवार आ गए हैं। बिना बताए।’

मैं नींद में थी। इसलिए कुछ जवाब नहीं दिया। पर इतना तो समझ आ गया कि इस समय में कोई किसी के घर बिना बताए कहाँ जाता है। वे भी चुप से थे। जानती मैं भी थी कि वे झूठ बोल रहे हैं। जानते वे भी थे कि वे झूठ बोल रहे हैं। बाद में पता चला कि उनकी श्रीमती जी ने उनकी खबर ली थी–‘इस कोरोना-काल में अतिथि बुलाकर तुम कौन-सी बहादुरी दिखा रहे हो? अगर घर में रहना है तो टिक कर बैठ जाओ। कोरोना से बच गए तो अतिथि सत्कार भी कर लेना।’

बगल वाले वर्मा जी अखबार पढ़कर बीवी को सुना रहे थे–‘कोरोना बीमारी में सुधार के बाद शहर के होटल और सार्वजनिक स्थान खुल गए हैं।’

इतने में फोन की घंटी बजी। फोन उनके बेटे के साले का था। उसने कहा–‘नमस्ते अंकल! कैसे हैं? अब तो कोरोना के मामले कम हो गए हैं। हम सोच रहे थे कि आपसे मिलने आएँ।’

वर्मा जी घबरा गए। फिर बड़े अदब से बोले–‘बेटा! अभी तो शहर बंद पड़ा है। न होटल खुले हैं। न कोई सार्वजनिक स्थान। अगर तुम आओगे तो कहीं घूम भी नहीं सकते। घर पर ही कैद होना पड़ेगा। जब स्थिति सुधरेगी तो मैं खुद तुम्हें फोन कर दूँगा।’

उनकी पत्नी धीरे से बोली–‘पर अभी तो तुम कह रहे थे शहर खुल गया?’

वर्मा जी ने उसकी तरफ आँखें निकाली और फोन काट दिया। हमारे पड़ोस में शर्मा जी रहते हैं। उनकी शुरू से आदत है कि वे अपने घर में टिक ही नहीं सकते। जब तक दिन में वे दो-चार घर न घूम लें। उन्हें चैन नहीं आता। अब यह संभव नहीं हो पा रहा। कितना मना करने पर भी वे बीच में दाव लगा ही लेते हैं। आज शाम को उनके घर से जोर-जोर से आवाजें आ रही थीं। खिड़की में से झाँक कर देखा तो शर्मा जी बरामदे में ही लँगोटी पहन कर नहा रहे थे। इतनी ठंड में उन्हें इस तरह नहाते देख आश्चर्य हुआ। फोन कर पता किया तो शर्मा जी पर तरस आया। हुआ यों कि शर्मा जी किसी बीमार मित्र का पता लेने पहुँच गए। उनके घर पहुँचने से पहले उनके आतिथ्य की खबर उनके घर पहुँच गई। पत्नी ने उनकी बाल्टी, लोटा, तौलिया सब बाहर रख दिया और आते ही शर्मा जी के कपड़े उतरवा दिए। साबुन थमा दिया कि सब कपड़े धोकर तार पर डालो। नहा कर ही घर में घुसने की इजाजत है। शर्मा जी ने बहुत कहा–‘पानी गर्म हो जाने दो। मेरे दोस्त को कोरोना नहीं है।’

पर पत्नी न मानी और ठंड में ठंडे पानी में शर्मा जी की बर्फ जम गई। उन्होंने प्रतिज्ञा ली है कि वे कोरोना ठीक हो जाने के बाद भी किसी के घर नहीं जाएँगे। न अतिथि बनेंगे और न किसी को बनने देंगे। ‘मत आना अतिथि’ का बोर्ड घर पर टाँग लेंगे।


Image: A Young Woman Knocking at the Fisherman’s Window
Image Source: WikiArt
Artist: Carl Bloch
Image in Public Domain

दलजीत कौर द्वारा भी