संपादक

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संपादक

“हास्य और व्यंग्य का तो हिंदी में सर्वथा अभाव है ही; आए दिन ऐसे साहित्यिकों से भी भेंट होती ही रहती है, जो ‘शहर के अंदेशे से दुबले’ बनते जाते हैं–हँसने-हँसाने वाली जिंदादिली ‘अंडर ग्राउंड’ हो गई है। मराठी के प्रसिद्ध लेखक श्री पादकृष्ण कोल्हटकर की एक रचना का अनुवाद हम नीचे दे रहे हैं। शायद यह पाठक और लेखक की रुचि बढ़ाए।”– संपादक

क़रीब 15 वर्ष पहले मैंने अपने गाँव में मिठाई की दूकान खोल दी। शुरू में ग्राहकों का मिलना थोड़ा-सा मुश्किल रहा। लेकिन उसका मुझे उतना दुख नहीं था। मैं पहले से ही संतोषी प्रवृत्ति का आदमी हूँ। दूसरा, मिठाई मेरे लिए प्रिय वस्तु रही है। इसलिए पेड़े, बरफी इत्यादि बची हुई चीज़ों का मैं ही उचित रूप से समादर करता था। ग्राहकों को बासी चीजें न बेचने का मेरा संकल्प भी था, इसलिए भी मेरा वह कर्तव्य ठहरता था। धीरे-धीरे ग्राहक भी बढ़ते गए और बाद में पुड़ियों को बाँधने के लिए रद्दी कागज की बेहद कमी महसूस होने लगी। तब से मेरे मन में समाचारपत्र के प्रकाशन का विचार निश्चित होने लगा। अखबार में अपनी दूकान का विज्ञापन होता जाएगा और वही अखबार मिठाई की पुड़ियों को बाँधने के काम भी आ जाएगा, इस विचार से मैंने अखबार का प्रकाशन शुरू किया। आशा है कि एक पत्थर से दो चिड़ियों को मारने का मेरा यह विचार पाठकों को भी पसंद आ जाएगा।

व्यवहार में एक पंथ दो काज के और भी कई उदाहरण मैं दे सकूँगा। ग्रंथकर्ता और पुस्तक-विक्रेता इसी प्रकार का ‘जोड़धंधा’ है। लेखक को पुस्तक लिखने के पहले दूकान की और किताबों को पढ़ने की सुविधा मिल सकती है और उनके आधार पर लिखी हुई अपनी किताबों से दूकान की शोभा भी बढ़ती है। इसी प्रकार यात्रियों के लिए ‘बोर्डिंग-लॉजिंग’ की सुविधा के साथ अस्पताल की भी सुविधा रखी जा सकती है। ‘बोर्डिंग लॉजिंग’ में ठहरे हुए यात्रियों से अस्पताल को ग्राहक मिल सकते हैं और चिकित्सा के लिए बाहर गाँवों से आए हुए रोगियों से ‘लॉजिंग’ के लिए ग्राहक मिल जाते हैं! डॉक्टरी उपचारों के बाद ‘लॉजिंग’ में खाना खाने पर अपने घर जाने के पहले ही रोगी पेट के रोगों का शिकार बन जाता है। इस तरह इन दोनों में से किसी के दायरे में जो कोई आ जाएगा, दोनों का हमेशा का ग्राहक बन जाएगा। डाकू और वकील का भी इसी तरह ‘जोड़धंधा’ बन सकेगा। वकील दिन में वकालत करे और रात में डकैती। किसी साथी डाकू को पकड़ लिया जाए तो वकील को डकैती के फायदे के साथ काम भी मिल जाता है; वह खुद पकड़ा जाए तो पैरवी के लिए दूसरे वकील की ज़रूरत नहीं पड़ती। इसी प्रकार के जोड़धंधों में मिठाई वाला और संपादक का जोड़धंधा आ जाता है। मिठाई के साथ नीति पर लेख भी ग्राहकों को मिल जाते हैं और उन लेखों की मिठास मिठाई के साथ बढ़ती है।

मैंने अपने अखबार का नाम भी ‘नीतिमेवा’ रखा था। इसी ‘नीतिमेवा’ के अंक में अपनी दूकान की मिठाई बाँधकर अपने शहर के एक लब्धप्रतिष्ठ के यहाँ मैंने उसे भेज दिया था। उन्होंने मिठाई खाकर डकार के साथ अपनी सम्मति भेज दी–‘यह मेवा बहुत ही बढ़िया है’। तब से अपने अखबार के शीर्षक के साथ इस सम्मति को भी मैं स्थान देता आया हूँ। इससे मेरे अखबार की खपत भी बढ़ गई है। इतना कह देना ज़रूरी है कि ‘हमारे मेवे पर सम्मति’ इस तरह संदिग्ध शब्दों से ही इसका उपयोग मैं करता आया हूँ। नीति विषयक पत्रों को चलाने वाले पर खुद ही नीतिमार्ग से चलने की ज़िम्मेदारी आ पड़ती है।

‘नीतिमेवा’ कितना आसान और छोटा नाम है। नहीं तो कितने ही अखबारों के लंबे-लंबे नाम हम देखते हैं। प्राय: ‘समाचार’ शब्द की पूछ भी जोड़ी जाती है। जैसे ‘बंबई समाचार’, ‘भारतीय समाचार’ इत्यादि। नागपुर में एक बार राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन के लिए मैं गया था। कार्यबहुलता के कारण नागपुर शहर में घूमने का और शहर देखने का मुझे समय नहीं मिल सका। लेकिन मुझे उसकी चिंता न थी। मैंने सोचा कि ‘नागपुरवैभव’ नाम के समाचारपत्र के कार्यालय को देखने से नागपुर को देखने का श्रेय आप से आप मिल जाएगा। इसलिए आखिरी दिन मैं ‘नागपुरवैभव कार्यालय’ में चला गया। लेकिन वहाँ की गंदगी, शोरगुल और अव्यवस्था से पाँच ही मिनट में मेरे सिर में दर्द होने लगा। ‘नागपुरवैभव’ को तत्पुरुष समास समझकर उसका अर्थ मैं ‘नागपुर का वैभव’ करता था। लेकिन अब ‘नागपुर जिसका वैभव है’ इसी तरह मैं अर्थ करने लगा।

संपादक के पद का बचपन से ही मुझे तीव्र लालच रहा। लेकिन साथ-साथ जो जिम्मेदारी आ पड़ती है, उसका मुझे ज्ञान नहीं था। संपादक बन जाने पर एक नया बोझ ही मानों मुझ पर आ पड़ा। पहले-पहल संपादकीय लेख लिखने की नौबत आई। बड़े ठाठ से मूँछ पर ताव देकर और बड़ी सिगार फूँकते हुए मैं तैयार हुआ; लेकिन एक पूरा वाक्य भी लेखनी से नहीं उतर पाया। काग़ज ही खराब है, लेखनी ठीक नहीं है, स्याही फीकी है, इस तरह की हजार शिकायतें कीं, नौकरों को भी गालियाँ दे दीं। लेकिन गालियों के शब्द जितनी आसानी से मुँह से बाहर आ जाते थे, शिष्ट शब्दों का सूझना उतना ही कठिन मालूम पड़ता था। ‘दयालु अँग्रेजी सरकार की स्थापना के बाद’–यह प्रारंभ तो मैंने किया; लेकिन एक घंटा बीत गया, वह वाक्य अधूरा ही रहा। परीक्षा में कठिन पर्चा मिलने पर विद्यार्थी को जो अनुभव होता है; परीक्षार्थी न बनते हुए भी मुझे वह अनायास ही मिल गया।

लेकिन संकटों में मार्ग भी निकल आते हैं। अपनी संपादकीय कुर्सी को छोड़कर मैं पुस्तकालय में चला गया और वहाँ के दूसरे अखबारों की फाइलों को उलटता गया। उनमें गंदे विचार और अशिष्ट विचार जब मैंने देखे, तब मुझे भी विश्वास हुआ कि मैं भी उस तरह ज़रूर लिख सकूँगा। कुछ शब्दों का संग्रह मैंने कर लिया। जैसे–सुवर्णभूमि, आर्यभाषा, खाविंदचरणारविंद, मिलिदायमान, दोगले सुधारक, आँख में धूल झोकना इत्यादि के साथ गालियों को भी मैंने टाँक दिया। उनकी मदद से तीन-चार कॉलम का मसाला आसानी से मैंने तैयार किया। पहले ही लेख में मैंने सुधारकों की खूब खिल्ली उड़ाई और बिल्कुल जनपदभाषा में, जिससे अखबार के ग्राहकों की संख्या एकदम बढ़ गई। ग्राहकों और लेखों की गालियों का यह अन्योनाश्रित संबंध अब मैंने ध्यान में रख लिया है और हर अंक में गालि-प्रदान की व्यवस्था विषयांतर करके भी मैं निष्ठा के साथ करता आया हूँ। मेरे पाठक ही इसके साक्षी हैं। ‘गालियों की बौछार’ नाम का मेरा शब्दकोश जल्दी प्रकाशित हो रहा है। होनहार नए संपादकों के लिए वह ज़रूर काम का होगा। इन गालियों को अपने लेखों में समान अंतर पर बोया जाए, तो चंदे के रूप में बिल्कुल अच्छा फल आ जाता है। यह मेरा अपना अनुभव है। अब तक साधारण शब्दों के कोश बहुत निकल चुके हैं, लेकिन यह गालियों का शब्दकोश पहला ही और असाधारण है।

एक बार कलकत्ते में राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन था। उसके अध्यक्ष बंबई के थे। उनके प्राइवेट सेक्रेटरी से मेरी जान-पहचान थी। अध्यक्ष महाशय का भाषण उनसे पहले ही मैंने ले लिया। अधिवेशन की नियत तिथि को उसे प्रकाशित करके विशेषांक भी निकाला। भाषण में बीच-बीच में हँसी, तालियों की बौछार इत्यादि भी दिया था, जिससे वास्तविकता का भी पाठकों को अनुभव हो। सबसे ऊपर छपा था–‘तार से आया हुआ संवाद’। शाम को मेरी दूकान में हमेशा की अपेक्षा ज्यादा भीड़ लगी। तब मैं फूला न समाया। आखिर एक ने मुझसे पूछा–‘संपादक महाशय, आज के विशेषांक में अध्यक्ष का जो भाषण छपा है, उसके लिए आपको खर्च भी बहुत लगा होगा।’

‘निरपेक्ष देशसेवा में पैसा क्या, प्राण भी देने को मैं तैयार हूँ’–मैंने गर्व के साथ कहा।

फिर उसने कहा–‘बीच-बीच में हँसी और तालियों का समाचार भी छपा है। हम जब पढ़ते थे, तब उन्हीं जगहों पर हमें भी हँसी आती थी।’

मैंने कहा–‘भाषण शब्दश: देने का यह मेरा अल्प प्रयत्न है।’

एक ने कहा–‘आपका संवाददाता बड़ा होशियार दिखाई देता है। कभी-कभी जो घटनाएँ हुई नहीं, उनको भी वह देख सकता है।’

मैंने उसकी ओर आश्चर्य से देखा। तब मुझे मालूम हुआ कि राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन दो दिन के लिए स्थगित किया गया था अर्थात् भाषण के बीच में मुक्तहस्त से छपी हँसी और तालियों का मुझी को ब्याज सहित अनुभव मिल गया।

किसी घटना के घटने पर उसका ब्यौरेवार चित्रण अखबारों में आ जाता है, उसका यही रहस्य है। मृत्युलेखों के बारे में यह और भी सच ठहरता है। जिसकी मृत्यु पर लेखक या संपादक अपने लेख में सखेद आश्चर्य और दुख प्रकट करता है, वह लेख कई वर्ष पहले शराब के नशे में भी लिखा रहता है।

अखबार के लिए कुछ विषय हमेशा के और कुछ नैमित्तिक होते हैं। राष्ट्रीय सभा, धर्मपरिषद, सामाजिक परिषदों की वार्षिक सभाएँ इत्यादि हमेशा के विषय हैं। प्रासंगिक विषयों में लड़ाइयाँ, मृत्यु, राज्य-क्रांति, विधवा-विवाह इत्यादि आ जाते हैं। इन विषयों की पूँजी जब खतम हो जाती है, तब अखबार वाले भूखे भेड़ियों की तरह आपस में ही झपट पड़ते हैं और दूसरों पर निंदा और गालियों की बौछार करके अपना उदर निर्वाह करते हैं।

उसके बाद अखबारों का बहुत ही भाग विज्ञापनों से भरा रहता है। उनमें प्राय: सभी दवाओं के विज्ञापन भरे रहते हैं। मैंने अपने कुछ मित्रों के कहने पर उनको छपवाना बंद किया था। लेकिन बाद में पाठकों की ओर से कई चिट्ठियाँ मेरे पास पहुँचीं। उनमें लिखा था कि आपके अखबार में विज्ञापन ही मनोरंजक और पढ़ने लायक होते हैं। उन्हें बंद कर देंगे तो आपका अखबार भी हम बंद कर देंगे। अपने पाठकों के संतोष के लिए मुझे फिर विज्ञापन छपवाना शुरू करना पड़ा।

अपने अखबार में समाचार भी मनोरंजक करके मैं देता आया हूँ। उसके लिए कभी-कभी बढ़ा-चढ़ाकर भी लिखना पड़ता है। उदाहरण के लिए “लंबेड़ो में बड़ा भूचाल हुआ। उससे ज़मीन में बहुत ही बड़ा छेद पड़ गया, जिससे शेषनाग का फन दिखाई देता था। उस फन की मणि का प्रकाश सब कहीं फैला हुआ था।” इस तरह के समाचारों में शहर के नाम कल्पित होते हैं–यह धूर्त पाठकों के ध्यान में आया ही होगा।

एक बार मासिक पत्रिका के प्रकाशन का विचार भी मेरे मन में आया था। लेकिन मासिक पत्रिका बगीचे के समान होती है, जहाँ दैनिक अखबार खेत के समान। मासिक पत्रिका के लिए खर्च ज्यादा लगता है। साथ-साथ अनियमित रूप से प्रकाशित करने की भी जिम्मेवारी संपादक के ऊपर आ जाती है। इसलिए मैंने यह विचार स्थगित रख दिया है।

संपादक का समाज में बड़ा सम्मान रहता है। हर तरह की सभा में उसे प्रवेश मिलता है और उसके लिए विशेष स्थान भी रखा जाता है। हर किसी को उपदेश करने का भी संपादक को अधिकार रहता है। एक बार मैंने बिस्मार्क को राज्यशासन का उपदेश दिया था। उसी तरह मोर्ले साहब को ग्रंथ-रचना में सूचनाएँ देकर उन्हें प्रोत्साहित किया। हमें नाटक (या सिनेमा) के प्रवेश-पत्र भी मुफ्त में मिलते हैं। अगर वे न मिल जाएँ, तो हमारे हाथ का टीकास्त्र हमेशा सुसज्जित रहता है। ग्रंथकर्ताओं को भी इसी डर से अपनी रचनाओं की प्रतियाँ हमारे पास भेजनी पड़ती हैं। हमारा सबसे बड़ा अधिकार बहुवचनार्थी आदर-सूचक संबोधन में है और उसे हम खुद भी काम में ला सकते हैं।

अब भी मेरे अखबार की खपत संतोषजनक नहीं है। लोकप्रियता के सभी मार्ग मैंने अब तक अंगीकृत किए हैं। अब एक ही मार्ग रहा है, वह है कारावास का अनुभव। विश्वस्त सूत्र से मुझे समाचार प्राप्त हुआ है कि संपादक के कारावास के समय उसके अखबार को कम से कम 5000 ग्राहक ज्यादा मिलते हैं। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी इत्यादि नेताओं के कारावास से कारावास का दोष भी नहीं रहा है। इतना ही नहीं, वह गौरव की चीज बन गई है। इसीलिए मैंने दो-तीन प्रतिष्ठित व्यक्तियों पर अनर्गल आक्षेप करके उनकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचाया था। लेकिन उनमें से किसी ने मुझे कोर्ट का मार्ग नहीं दिखाया। इससे कारावास की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाई है। अब इसके बाद की सीढ़ी है–चोरी करके सीधे ही कृष्णमंदिर में कुछ साल तक आराम करना। अगर चोरी में सफल हुआ, तो जनम भर का वैभव प्राप्त होगा। अगर असफल भी हुआ तो कुछ सज़ा जरूर होगी; लेकिन मेरे अखबार के ग्राहकों की संख्या तो दुगुनी बढ़ जाएगी।

अनुवादक-प्रो. महादेवसीताराम करमरकर


Image: Boxes and Jars of Sweetmeats
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Artist: Juan van der Hamen
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