चरण-स्पर्श

चरण-स्पर्श

अध्ययन की दृष्टि से चरण-स्पर्श एक अनंत संभावनाओं वाला क्षेत्र है। यहाँ तक कि स्वयं अध्ययन का चरण-स्पर्श के साथ घोर संबंध है। सम्यक चरण-स्पर्श के बिना सम्यक अध्ययन नितांत असंभव है। जिस तरह प्रेमादि कतिपय क्षेत्रों में, बकौल बिहारी, डूबने वाला तिर जाता है और तिरने वाला डूब जाता है, उसी प्रकार अध्ययन के क्षेत्र में नित चरण-स्पर्श करने वाला तिर जाता है और केवल अध्ययन के भरोसे रहने वाला डूब जाता है।  

इस महत्त्वपूर्ण विषय पर अध्ययन करने की प्रेरणा मुझे इस तरह मिली कि एक बार मुझे एक मंत्री महोदय से मिलने जाना पड़ा। एक कमरे में मसनद लगाए बैठे थे मंत्री जी। कक्ष में प्रवेश करते ही सभी एक-एक कर उनके चरण स्पर्श कर रहे थे। मैंने केवल हाथ जोड़कर नमस्कार किया। मंत्री जी मुझे कुपित दृष्टि से देखते रहे, जैसे मैंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो। 

मंत्री महोदय के यहाँ से लौटकर मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मंत्रियों को चरण स्पर्श करवाने की क्या कोई बीमारी होती है? अगर हाँ, तो यह बीमारी उन्हें मंत्री बनने से पहले से लगी होती है या बाद में लगती है? क्या वे लोगों से पैर छुआने के लिए ही मंत्री बनते हैं और इसी को जनसेवा का नाम देते हैं? क्या वे इस तरह उस जनता से बदला लेते हैं, जिसके सामने हाथ जोड़कर उन्हें चुनाव में वोट माँगने पड़े थे?

बहरहाल, इस घटना ने मुझे चरण-स्पर्श पर गहन अध्ययन करने को विवश कर दिया। मैंने पाया कि चरण-स्पर्श की प्रथा अनादि काल से चली आ रही है। गुरुजनों का चरण-स्पर्श प्राचीन काल में सामान्य शिष्टाचार था। ऋषि या गुरु जब राजदरबार में पहुँचते, तब राजा तुरंत उनके चरणों में गिर पड़ते। गुरु की चरण-रज ली जाती, जिसे सुविधाजनक बनाने के लिए कुछ कृपालु गुरु सायास अपने चरणों में काफी मात्रा में रज लेकर चलते। गुरुजनों के पद पखारने यानी जल से धोने की परंपरा भी शायद इसीलिए पड़ी होगी कि बिना इसके वे अपने चरण मय रज के ही घर के अंदर ले जाते और सारा घर गंदा कर देते, जिसे साफ करना उनके पद पखारने से ज्यादा कष्टदायक होता। बार-बार ऐसा होने पर बाई काम छोड़कर चली जाती सो अलग। 

पौराणिक रूप से देखें तो रामभक्त हनुमान जब पहली बार भगवान राम से मिले, तब ‘प्रभुपहिचानगहे’ कपि चरना। उधर रावण ने विभीषण को लतियाकर सम्मानित किया, जबकि विभीषण फिर भी उसके पैर ही पकड़ते रहे–

‘अस कहि कीन्हेसि चरण-प्रहारा, अनुज गहे पद बारहिं बारा।’

विभीषण के इस आचरण से तुलसीदास ने उन्हें संतों की श्रेणी में ला रखा–

‘उमा संत कइहे बड़ाई, मंदकरत जो करई भलाई।’

धर्म के बाद राजनीति ने चरण-स्पर्श को सबसे ज्यादा प्रश्रय दिया है। यहाँ अपने से बड़े के चरण छूकर ही ऊपर चढ़ा जाता है और चढ़ते ही उसी को चरण-प्रहार द्वारा नीचे गिरा दिया जाता है, जिसके चरण छूकर ऊपर चढ़े थे। इससे आदमी तब तक के लिए सुरक्षित हो जाता है, जब तक कि कोई दूसरा उसके साथ वही क्रियाकर्म नहीं दोहरा देता।

एक राज्य के दो भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में चरण-स्पर्श की परिपाटी सरकारी और गैरसरकारी दोनों ही क्षेत्रों में खूब फली-फूली। इस कला का उपयोग परमिट लेने, पार्टी का टिकट लेने या प्रमोशन लेने आदि हर क्षेत्र में किया गया। सचिवालय के कुछ अधिकारी तो मुख्यमंत्री के चरण-स्पर्श करने के बाद ही अपनी कुर्सी पर जाकर बैठते थे। राज्य की राजधानी के तत्कालीन जिलाधिकारी इस परिपाटी का इतनी निष्ठा से पालन करते कि नित्य क्रिया से निवृत्त हो वे सबसे पहले मुख्यमंत्री के चरण-स्पर्श करने ही जाते और यह क्रिया भी वे नित्य क्रिया की-सी बेताबी से ही किया करते। आगे चलकर ये दोनों नित्य क्रियाएँ आपस में इतनी गड्डमड्ड हो गईं और वे कभी यह नित्य क्रिया पहले करने लगे तो कभी वह। इस कारण जब चरण छूने वाली नित्य क्रिया में से भी बदबू आने लगी, तो मुख्यमंत्री को उन्हें डाँटकर नित्य क्रियाओं का क्रम सही रखने के लिए कहना पड़ा। 

ये मुख्यमंत्री अपने चरण काफी छिपाकर रखते थे, ताकि चरण-स्पर्शार्थी को उनके चरण स्पर्श करने में कुछ मशक्कत करनी पड़े, जबकि दूसरे मुख्यमंत्री ‘सर्व ढके सोहत नहीं, उघरेहोत कुवेश, अर्ध ढके छवि देत हैं, कवि-अच्छर, कुच, केश’ का अनुसरण करते हुए इस सूची में चरणों को भी शामिल करते हुए अपने चरण आगे करके ऐसी मुद्रा में बैठते थे कि आगंतुक न केवल उनके चरण आसानी से स्पर्श कर सकें, बल्कि उन्हें करने ही पड़ें। 

प्रधानमंत्रियों, उपराष्ट्रपतियों, राष्ट्रपतियों आदि ने भी इस परंपरा को अपने-अपने ढंग से खूब बढ़ावा दिया है। किसी समय मुस्लिम टोपी पहनने से इनकार करने वाले प्रधानमंत्री ने बाद में वाराणसी में आजाद हिंद फ़ौज के सिपाही 113-वर्षीय कर्नल निजामुद्दीन के चरण छूकर अपनी कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि के चौखटे से बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन इस चक्कर में अपने उन कट्टर समर्थकों को और नाराज कर लिया, जिन्होंने उन्हें इस उम्मीद में वोट दिया था कि वे प्रधानमंत्री बनते ही एक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को काटना शुरू कर देंगे और साल भर बीत जाने के बाद भी इसके रत्ती भर आसार नजर न आने के कारण जो उनसे पहले से ही नाराज चल रहे थे। 

लेकिन गलत आदमी की चरण-वंदना छब्बे बनने के आकांक्षी को चौबे क्या, दुबे भी नहीं रहने देती और अबे बनाकर छोड़ देती है। लालकृष्ण आडवाणी इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं, जो प्रधानमंत्री पद की लालसा में मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए जून 2004 में पकिस्तान में जिन्ना की मजार पर माथा टेककर अपना सब-कुछ गवाँ बैठे और फिर खाली बैठे ‘सब-कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया’ गाने को मजबूर हो गए।

वित्तीय क्षेत्र में मॉर्गेज का एक रूप होता है रिवर्स मॉर्गेज, जिसमें बैंक वरिष्ठ नागरिकों को उनके कब्जे वाली प्रॉपर्टी अपने पास गिरवी रख उसके बदले निश्चित अवधि के लिए नकदी-प्रवाह उपलब्ध कराता है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति स्व. राजेन्द्र प्रसाद ने चरण-स्पर्श की विधा को भी रिवर्स चरण-स्पर्श का एक अभूतपूर्व आयाम दिया। 1954-55 में उन्होंने वाराणसी संस्कृत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) के एक समारोह में 200 ब्राह्मणों के पैर सार्वजनिक तौर पर छुए ही नहीं, बल्कि धोए भी। 

इस घटना को ज्यादातर राजनेताओं ने न केवल नापसंद किया, बल्कि तीव्र प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। वाराणसी के बेनिया पार्क में एक सार्वजनिक समारोह को संबोधित करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा कि जो आदमी किसी के पैर धोने जैसा जघन्य कार्य कर सकता है, वह किसी दूसरे को लतिया भी सकता है। 

उक्त घटना का एक रोचक पहलू यह भी रहा कि जो 200 ब्राह्मण पैर धुलवाने के लिए बुलाए गए थे, उनमें से एक ने अपनी आत्मा द्वारा ऐन मौके पर धिक्कारने का कार्यक्रम शुरू कर देने के कारण विद्रोह कर दिया। वह पैर धुलवाने वालों की पंक्ति से यह कहकर अलग हो गया कि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति से मैं पैर नहीं धुलवा सकता, यह संविधान और राष्ट्रधर्म का अनादर है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस विद्रोही विप्र का प्रतिस्थानी यानी ऑल्टरनेटिव ढूँढ़ने में जरा भी परेशानी नहीं हुई और संविधान और राष्ट्रधर्म के अनादर जैसी निरर्थक बातों में न पड़ने वाला एक अन्य ब्राह्मण फौरन आगे बढ़कर उसी तरह से सेवा में प्रस्तुत हो गया, जैसे कुछ मामलों में फेरों से तत्काल पहले माँगी गई दहेज की कोई वस्तु चिराग के जिन की तरह तत्काल प्रस्तुत कर पाने में दुल्हन के पिता द्वारा असमर्थता व्यक्त करने से नाराज दूल्हे द्वारा फेरे न लेने के लिए अड़ जाने पर तमाशबीनों में से ही कोई युवक लड़की का हाथ थामने के लिए आगे आ जाता है। अलबत्ता इस घटना से यह साबित हो गया कि रूढ़िवादिता के विरुद्ध विद्रोह कभी-कभी रूढ़िवादियों की तरफ से भी आ सकता है। 

आगे चलकर इस परंपरा को कुछ संशोधित रूप में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला ने आगे बढ़ाया। उन्होंने अकाल तख्त द्वारा दी गई सजा के तहत लोगों के चरण तो नहीं, अलबत्ता उनके चरणों की जूतियाँ जरूर साफ कीं और इस प्रकार चरण-स्पर्श की नई विधा रिवर्स चरण-स्पर्श को भी एक नया आयाम देते हुए वे धर्म की रक्षा में संलग्न होकर लोगों को यह शिक्षा देते गए कि अधर्म के द्वारा भी यदि धर्म की रक्षा करनी पड़े तो करनी चाहिए, क्योंकि धर्म बड़ा है, आदमी नहीं।


Image : Feet
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Artist : Vincent van Gogh
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सुरेश कांत द्वारा भी