बिच्छू के दंश से घोंघा सड़क पर

बिच्छू के दंश से घोंघा सड़क पर

ऐसा कभी हो सकता है कि घर के अंदर बिच्छू दिखे और हम उससे खुद को कटवा लें…। हाँ, विष पिपासु इक्के-दुक्के ही होते हैं जो साँप, बिच्छू जैसे विषैले जीवों से खुद पर एक्सपेरिमेंट कर डॉक्यूमेंट्री बनाते हैं। उनके लिए पैसा कमाने का जरिया है। आम लोग तो मेरे जैसे ही चप्पल, जूता, झाड़ू जिससे भी बिच्छू मरेगा, वही लेकर दौड़ता है। उसके डंक की दहशत बहुत है। दहशत का खात्मा इतना आसान कतई नहीं होता। लेकिन ऐसा करके, तत्काल घबराहट कुछ हद तक कम की जा सकती है।

भय आक्रांताओं से मेरे जैसा सामान्य व्यक्ति बिना डरे नहीं रहेगा। यों भी कह सकते हैं कि कुछ भय, किन्हीं स्पेशलिस्टों द्वारा जनरल के लिए इजाद किए जाते हैं। लेकिन इसके ही उलट देखो तो, कुकुरमुत्ते से कोई भय नहीं…। बड़ा ही किचन फ्रेंडली हो गया है, आजकल। एक समय था, जब इसे हाथ लगाने से भी हमें रोका जाता था। इसका नाम बदलकर, हमें इसकी हिक्क और दहशत से बाहर निकाला गया। उसे छूने से अलां-फलां बीमारी का डर मन में ज्यादा था। फिर एकाएक मशरूम की इतनी स्पिशीज और रेसिपीज सामने रख दी गईं कि आलू की जगह लेने में इसे समय नहीं लगा। मतलब इतना फ्रेंडली हो गया कि हम उसके डर को भूल चुके थे। भयमुक्त हुए तो बालों का कट भी मशरूम हो लिया। लेकिन एकाध विषैला कुकुरमुत्ता कहीं गलती से पेट में चला जाए, तो समझो अँतड़ियाँ मुँह के बल आने में थोड़ा ही वक्त लगेगा।

ये सब बाजार की मेहरबानी है। वो हमारी सोच से खेलता है और हम खिलवाड़ करवाने तैयार बैठे हैं। अब कहोगे कि बिच्छू के बीच में कुकुरमुत्ते को क्यों घुसेड़ा…। तो भाई, डर को कैटेगराइस्ड करके कैसे समझाया जा सकता था…। खैर, सामान्य लोगों की तरह मेरा डर अभी कायम था। इसलिए मैं भी उसके डंक की दहशत से आक्रामक हो गई। और हाथ में झाड़ू लेकर उसे पछाड़ने लगी। तभी दायें-बायें फड़फड़ाती, पटकती उसकी पूँछ शांत हुई और बिच्छू एकाएक याचक की मुद्रा में वहीं रुक गया। बोला–देखो! तुम मुझसे कितना डरती हो। अभी तो मैं बच्चा ही हूँ। लेकिन तुम्हारी जान आफत में है।

मैंने कहा–डंक तो छोटे बिच्छू में भी होता है। उसका काटा भी उतना ही जहर फैलाता है, जितना बड़े का। फिर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें यों ही छोड़ दूँ, जिससे तुम, और किसी को अपने दंश का पात्र बना सको। मैं ऐसा नहीं कर सकती। तुम्हारी प्रवृत्ति तुम कभी नहीं छोड़ोगे।

बिच्छू बोला–देखो! तुम्हारे यहाँ नाबालिग, बड़े से बड़ा अपराध करके भी छूट जाते हैं। फिर मैंने तो कुछ किया ही नहीं। क्या तुम्हारे पास दया और याचिका के लिए कोई जगह नहीं। कुछ अपनी न्याय प्रणाली से ही सीख लो।

मैंने कहा–दया दिखाकर तुम पर भरोसा नहीं किया जा सकता। विषैला, विष तो उगलेगा ही…।

बिच्छू बोला–चलो, मैं तुम्हें आज एक घोंघे की कहानी सुनाता हूँ।

कहानी ये है–एक समय था जब मेरे और घोंघे के पूर्वज साथ-साथ मिट्टी में रहते थे। उसके घरवाले मेरे परिवार को कभी ‘बिच्छू’ वाली हिकारत भरी नजरों से नहीं देखते थे। यों समझो हम सगे न होते हुए भी, अपनत्व से लबालब थे। पीढ़ियाँ साथ पनपती गई। घोंघे के दादा जी चल बसे, हम सबको अकेला छोड़…। लेकिन हम फिर भी एक परिवार के जैसे सारे तीज-त्यौहार मनाते हुए रहते थे। धीरे-धीरे मेरे परिवार ने वहाँ से पलायन शुरू कर दिया। लेकिन घोंघे का परिवार अब भी वहीं रहता था।

मेरे दोस्त के पिता की परिस्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। उन्हें अपना घर चलाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती। घोंघा बहुत सारे भाई-बहन थे। उसके पिता उतना भी नहीं कमा पाते कि सबका पेट भर सके। कितनी ही बार मेरा मित्र मुझसे मिलने आता, तब मेरी माँ उसे पेटभर खिलाती। वो जब सुबह उठता तब कहता कि ‘मैं जब भी तुम्हारे घर आता हूँ, नींद बहुत अच्छी आती है। वरना रोज तो मैं सोता ही नहीं। पूरी रात करवटें बदलने में गुजर जाती है।’

उनके परिवार के अलावा उसके चाचा, ताऊ का परिवार भी था। उनकी दो बहनें भी थीं। सब संपन्न थे। सबके अपने-अपने घर थे। मेरे दोस्त के पिता खुदगर्ज थे, इसलिए अपने भाइयों के सामने कभी हाथ नहीं पसारते और माँगते भी किस हक से…। उनके सगे, परायेपन का बोध लिए थे। जब से जायदाद पर लड़की के पूरे हक का कानून आया, उसके पिता जी की दोनों बहनों ने कानूनी चाल चल दी। हुआ यों कि जब वसीयत बनी थी तब मेरे दोस्त के पिता जी बहुत छोटे थे। उन्हें तो इस बात से कोई वास्ता ही नहीं था। बड़े होने पर सब अपने-अपने घरों में चले गए। मेरे मित्र का परिवार वहीं रहा। उसके दादा जी भी गुजर चुके थे, जिन्होंने हिस्सेदारी की थी। अब बचे वे अकेले, जिनके पास इस छत के अलावा और कुछ था ही नहीं…।

‘परिवार के लिए छत की जरूरत भी वैसी ही होती है, जैसी भूख लगने के लिए पेट की…। वो छत की ही करामात होती है जो भूख की तड़पन को मुहल्लेवालों की दृष्टि से बचा लेती है। गोया गरीबी का फुनगा लगते ही, सभी उस गरीब को तोड़ने की भरपूर कोशिश करते हैं। उघड़े बदन फुटपाथ पर बैठे हुए को भिखारी समझ, उसकी सवा लाख की बंद मुट्ठी, एक आने भर की नहीं बचती’।

इज्जतदार इसी से घबराता है। कानून के झमेलों में करोड़पति भी रोडपति होते हुए देखे हैं। वो कहते हैं न कि अदालत की चौखट और पुलिस की फाइल कभी न देखनी पड़े। सारा जनम तारीखों में निकल जाता है। माथे की लकीरों के साथ जवानी, बुढ़ापे में कब बदल जाती है, पता नहीं चलता।

घोंघे की बुआ अपने हक के लिए लड़ रही थीं। उनका हक माँगना भी जायज था। परंतु परिस्थितिवश जायज निर्णय को नाजायज में बदला जा सकता है। लेकिन ऐसा करने पर उनके हक का स्त्रीवादी पक्ष कमजोर दिखता। हक की लड़ाई में उन सब भाई-बहनों की घोंघियत गायब हो चुकी थी। उन्हें दिन-रात बस अपना हिस्सा दिखता। मित्र के पिता ने प्रॉपर्टी बेचने का निश्चय किया। गरीब की प्रॉपर्टी का दाम औना-पौना ही होता है। मिली हुई रकम कम और हिस्सेदारी ज्यादा थी। उनके द्वारा जायदाद के उपभोग और आनंद के ब्याज पर भाई अपना हक समझते थे। मेरे मित्र घोंघे के परिवार का बिन-देखा-भोगा-आनंद, आज उनकी कंगाली का कारण बना था।

उसके पूरे परिवार ने घोंघियत छोड़, बिच्छुपन वाली आदमियत वरण कर ली थी। फिर भी बिच्छू केवल खुद के बचाव में डंक मारता है। और आदमी स्वार्थीपन में अपनो को दंश देता है। उसके अंदर के बिच्छुओं की तादाद, असल बिच्छू जाति के संपूर्ण परिवार से कई गुना ज्यादा है। तभी आदमियत का दुष्प्रभाव सब पर है। छोटे से भूखंड के लिए जमाया हुआ पैर, अनगिनत भावनाओं के जुड़े हुए तारों को तार-तार कर गया। उनके दिल अब केवल खुद के लिए ही धड़कने लगे हैं। खैर, जब तक मुझे यह सब पता चला बहुत देर हो चुकी थी। उस दिन घोंघा मेरे घर आया, तब उसने पूरी दास्ताँ सुनाई। और कहा कि ‘तूने बिच्छू होते हुए भी कभी डंक नहीं मारा’। लेकिन मेरे अपनो ने डँसकर ‘बिच्छुपन’ दिखाया है।

मैंने कहा–ये कहानी घर-घर की है। इसमें क्या नयापन…। हमारे पड़ोसी के घर अभी हाल ही की घटना है। (ऐसी छोटी-मोटी घटनाओं से हम पसीजते नहीं)। बिच्छू–जोर से हँसा…। तो सुनो! जितनी भी आतंकवादी घटनाएँ होती हैं उनमें तुम्हारी बिरादरी के बिच्छुओं का हाथ होता है। उन्हें पड़ोसी मुल्क से सहानुभूति ज्यादा है। यदि अपनो की परवाह करते तो रक्षा पर सौदा कभी नहीं करते। न ही जेपी को शर्मसार करने वाले आंदोलनों का नेतृत्व करते।

मैंने कहा–आंदोलन करना हमारा अधिकार है। उसे कोई नहीं छीन सकता। हमने भी किया था अपने स्कूल के लिए। उस समय की सरकार ने मान्यता ही रद्द कर दी थी। हमारा भविष्य अंधकार में था। आंदोलन से हमारा भविष्य उजला हुआ।

बिच्छू–पैसा और पावर जब तक आंदोलन की राह में नहीं आते, तभी तक वे अपनी असली जंग लड़ते हैं। इनके आते ही आंदोलन के सर्वे-सर्वाओं की आपसी जंग शुरू हो जाती है। खामियाजा मेरे जैसा निर्दोष ही भुगतता है। देखो! तुम्हारे बीच ही कितने अनगिनत बिच्छू उपस्थित हैं। उनका दंश, गैस पीड़ित आज तक भुगत रहे हैं। लेकिन तुम्हें वो सब नहीं दिखते। मैं बच्चा होकर तुम्हें दहशतगर्द दिख रहा हूँ। मुझे तो आज तुम खत्म कर डालोगी। लेकिन उन सबका क्या!! जिनके बीच तुम्हें रहकर दंश झेलने हैं।

उसकी बातें सुनकर मैं अंदर तक जोर से हिल चुकी थी। लगा कि परजीवी काया मुझे आईना दिखा रही है। होश आया तो सामने बिच्छू निर्जीव होकर पड़ा था। तभी एक आत्मगूँज उठी कि ‘मनुष्य के मन में भरा विष संपूर्ण विषैली प्रजाति के प्राणियों पर कलंक है।’ इस कहानी ने मेरे माथे पर लकीरें खींच दी। सोचती हूँ कि बिच्छू हमसे ज्यादा समझदार और वफादार निकला। हम तो घोंघा भी कभी न बन पाएँगे। बिच्छू ने सच ही कहा कि बिच्छू का काटा हुआ फिर भी ठीक होता है, लेकिन आदमी के दंश से कोई नहीं बच पाता। आदमी, अब सबसे विषैला प्राणी हो चुका है।


Image: Arizona bark scorpion glowing under ultraviolet light
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समीक्षा तैलंग द्वारा भी