बुल्लेशाह, तू हासिल की कीता!

बुल्लेशाह, तू हासिल की कीता!

चपन में स्कूल से गर्मी की लंबी वाली छुट्टी में दादी, नानी, मौसी, चाची, बहन या बुआ के घर जाना बच्चों का प्रिय मनोरंजन हुआ करता था। उस समय रेडियो सुनने या पत्र-पत्रिकाओं में बालसाहित्य को पढ़ने का कोई अन्य साधन हमारे पास नहीं था। थोड़ा पढ़-लिख जाओ तो अकबर और बीरबल के किस्से बचपन में सुनना-सुनाना अकसर में टाइम पास करने  का बढ़िया साधन हो जाता था। फिर भी आज के बरक्स उस समय बचपन नीरस नहीं था। आज भी वे दिन याद आते हैं। आजकल बच्चे तो फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हॉट्सएप पर अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं। मिलना-जुलना तो उन्होंने लगभग छोड़ ही दिया है। मेरा बचपन अपनी नानी के घर पर ही बीता। नानी जो मुझे अकसर कहानी सुनाया करती थी। एक दिन शाम ढलते ही नानी ने नयी कहानी सुनाई। एक बार बादशाह अकबर ने अपने सभी नौ रत्नों से खुश रहने का उपाय पूछा। किसी ने कहा–बाबा रामदेववाला ‘योगा’ करो (क्षमा करें बाबा रामदेव महाराज जी उस समय तक पैदा नहीं हुए थे अतः उनका नाम यहाँ योग-ध्यान के  प्रतीक के रूप में लिया है)। किसी ने कहा–गाय पालो और उसकी सेवा करो। किसी ने कहा–बागवानी करो। किसी ने कहा–बेगम की पहलू में ही सच्ची ख़ुशी मिलती है। किसी ने कहा–पीर-फ़कीर  की दरगाह पर जाकर दुआ माँगो या चादर चढ़ाओ। किसी ने कहा–बेगम के सुबह-शाम पैर दबाओ (ये बादशाह के लेवल पर थोड़ा ज्यादा हो गया, अतः इसे इग्नोर करने की कृपा करें) आदि-आदि। इतने जवाबों से भी बादशाह अकबर  खुश नहीं हुआ। वह फाइनली बीरबल की ओर मुखातिब हुआ। आखिर में यही होता भी था। बीरबल ने जवाब के लिए पहले एक महीने का समय माँगा और बादशाह ने दिया। जब महीने के भीतर भी जवाब न दे पाया तो बीरबल ने ‘सेम टर्म्स एंड कंडीशन’ पर काम पूरा करने के लिए एक महीने के एक्सटेंशन हेतु बादशाह अकबर को अप्लाई किया। कहते हैं कि मंत्री बीरबल बादशाह अकबर की कमजोरी था जैसे बेताल की विक्रम। अतः एक्सटेंशन बिना किसी की हथेली को गर्म करे या मक्खन लगाए बिना ही मिल गया। इस अवधि में बीरबल अज्ञातवास में चला गया। इसी बीच बीरबल की दाढ़ी बढ़कर लंबी हो गई, परंतु उसे जवाब नहीं मिला। आखिर उनतीसवें दिन यानी एक्सटेंशन के खत्म होने के ठीक एक दिन पूर्व वह राजधानी छोड़कर गाँवों की तरफ निकल गया। रास्ते में उसने खेत जोतते हुए एक किसान को देखा जो धूप में भी मस्ती से लोकगीत गा रहा था। बीरबल को इशारा मिल गया। किसान से खुश रहने का कारण पूछा तो बताया कि समय जैसा भी है यानी अच्छा या बुरा, एक दिन गुज़र जाएगा। खुश रहने का यही असली मंत्र है। दीवाने ख़ास (केबिनेट की हाई पावर कमेटी) में बीरबल ने बादशाह से सामने खुश रहने का मंत्र संबंधी प्रस्ताव अप्रूवल के लिए रख दिया। बादशाह को खुश होना ही था। अतः बीरबल का ख़ुशी संबंधी प्रस्ताव कानून बन गया। उस दिन के बाद अकबर के राज्य में हर आदमी खुश रहने लगा।

तभी मैंने नानी से पूछ लिया–‘क्या अभी ऐसा ही हमारा कोई बादशाह और बीरबल जैसा मंत्री है? क्या ऐसे ही ‘दीवाने-ख़ास’ या ‘दीवाने आम’ आज भी होते हैं?’ नानी ने दुखी होते हुए कहा–‘बेटा, अब ये किस्से किताबों तक सीमित रह गए। देश की अँग्रेजों की गुलामी से आज़ादी के बाद राजशाही ख़त्म हो गई और जनता ही राजा बन गई। पुराने राजा सरकार से हर महीने प्रिवीपर्स लेने लगे थे, जिसे इंदिरा गाँधी ने एक दिन ख़त्म कर दिया था। 

‘नानी, क्या आजकल के राजा-महाराजा भेष बदलकर राज्य में नहीं घूमते? नानी ने झुँझलाकर कहा–‘बेटा, अब एक राजा तो रहा नहीं, अब तो हर राज्य में जनता ने एक क्या कई-कई राजा बना दिए हैं। आखिर एक सौ चालीस करोड़ लोगों को काबू में रखने के लिए इन लोकतांत्रिक राजाओं को फुर्सत नहीं मिलती। राजा का अच्छा होना जरूरी नहीं है, अब प्रजा अच्छी और आज्ञाकारी होनी चाहिए।’ मैं तो चुप रह गया, लेकिन अकबर और बीरबल का यह किस्सा पढ़कर एक साधारण आदमी बीरबल की तरह एक दिन भेष बदलकर राज्य में ख़ुशी का मंत्र ढूँढ़ने निकल पड़ा। कई दिनों तक घूमने के बाद शहर से दूर जंगल में एक आदमी खुश मिल ही गया। उसने सोचा–यह आदमी खुशी का मंत्र जरूर जानता है। उस काली घनी दाढ़ी वाले और लंबे केशधारी ने अपना नाम गुप्तप्रसन्नजीत सिंह शर्मा बताया। इतना लंबा नाम सुनकर वह साधारण आदमी हैरान रह गया। उसने बताया–वास्तव में ही वह एक खुश आदमी है। वह मन लगाकर अपना काम करता है। पेटीएम से लेनदेन करता है। सारा पैसा बैंकों का एनपीए बढ़ने के बावजूद सरकारी बैंकों में रखता है। जीएसटी समय से जमा करता है। व्यापार में घाटा होने पर भी आयकर पूरा भरता है। सड़क पर किसी के ऊपर गुस्सा (रोडरेज) दिखाना तो दूर हार्न भी नहीं बजाता। किसी को गाली तक नहीं देता, बल्कि गुंडे-मवालियों से उलटे मार खा लेता है। बरसात में रेनकोट के बजाय छाता लगाकर नहाता है। सिर्फ दो जोड़ी कपड़े सिलवाता है। कलफ़ लगे कपड़े मुझे अच्छे नहीं लगते। कुत्ते, बिल्ली, गाय  और बकरी को रोज रोटी खिलाता है। किसी भी सरकार की आलोचना नहीं करता, बल्कि झूठी तारीफ करता है। गाँधी जी के बताए मार्ग का नित्य प्रचार करता है। देशभक्ति और प्रभु-भक्ति के सिवा उसका कोई शगल नहीं है। व्यवस्था और प्रभु प्रसन्न होकर उसे गुप्त धन दिलाते रहते हैं, इसीलिए उसका  नाम गुप्त प्रसन्नजीत सिंह शर्मा है और आपका नाम?

आम आदमी ने उत्तर देते हुए कहा कि उसका नाम ‘आम आदमी’ है। कई साल विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक पढ़ाई की। बड़ी मुश्किल से अब वह एक अध्यापक बन पाया है। आप उसे किसी प्राइवेट या सरकारी दफ्तर का मामूली क्लर्क भी मान लें तो वह कुछ नहीं कहेगा। इसमें उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं है, क्योंकि जो नौकरी मिल जाती है, वह कर लेता है। आयकर वह भी देता है किंतु इसके लिए व्यय को नहीं पूछा जाता। उसके आचरण को नियंत्रित करने के लिए एक नियमावली है जिसके अनुसार वह सरकार  की आलोचना नहीं कर सकता। किसी की तरफ घूरने पर  नौकरी से निकाला जा सकता है। पैदल लाल बत्ती पर रुकना उसकी विवशता है क्योंकि कहीं कोई अमीरजादा रौंदकर न भाग जाए। अब वह कोई उसकी तरह अमीर आदमी तो है नहीं जो कुत्ते घुमाने के लिए दस-दस नौकर रखता हो। उसके पास गुप्तधन आता ही नहीं, क्योंकि लक्ष्मी देवी जी उसके जन्म के बाद से निरंतर नाराज़ चल रही हैं। वह एक दुविधा में हमेशा जीता है कि यदि पाप से धन कमाऊँ तो ज़मीर मरता है और पुण्य का कार्य करता हूँ परिवार भूखा मरता है। यह व्यवस्था उसे मध्यमार्ग  चुनने ही नहीं देती। इस कारण उसका कुनबा भी नाराज़ ही रहता है। अतः वह अकसर मौन ही रहता है। इस नाज़ुक मौके पर इस ‘आम आदमी’ ने ‘खुश आदमी’ को बुल्ले शाह की ये लाइनें सुना दी…

‘पढ़ पढ़ किताबाँ इलमदियाँ, तू नाम रख लेया काजी…

हथविचफड़ के तलवार, तू नाम रख लेया गाजी…

मक्के मदिनाघुम के, तू नाम रख लेया हाजी…

बुल्लेशाह, तू हासिल की कीता, जे तू यार ही ना रखया राजी’

इतना सुनते ही गुप्तप्रसन्नजीत सिंह शर्मा उर्फ़ ‘खुश आदमी’ ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सर से सींग।


Image: Emperor Akbar, Los Angeles County Museum of Art
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