एक पी-एच.डी. का सवाल है…

एक पी-एच.डी. का सवाल है…

घर का सामनेवाला दरवाजा खोला, तो देखा एक भिखारी गली में खड़ा चिल्ला रहा है–‘अल्लाह के नाम पर दे दे, मौला के नाम पर दे दे, एक पी-एच.डी. का सवाल है बाबा, भगवान तेरा भला करेंगे…।’

हमने डरकर दरवाज़ा बंद कर दिया। कहीं काँके राँची के पागलखाने से भागा हुआ आदमी तो नहीं! या फिर दो-तीन विषयों में एम.ए. करके पगलाया हुआ है…या फिर कहीं यह शख्स एलेक्शन तो नहीं लड़ने वाला है? ढेर सारे सवालों से हम घिर गए, जैसे यह देश अनेक सवालों से घिरा खड़ा है।

न जाने क्या बात है, कैसी हवा है, हर कोई पी-एच.डी. के पीछे भाग रहा है। कुछ ना कुछ किया कर, पाजामा फाड़कर सिया कर…वाली कहावत अब पुरानी हो गई है। नई पुकार है–बेकार बैठकर न जियाकर, थीसिस लिख कर, पी-एच.डी. किया कर, क्योंकि हर कोई कर रहा है। जब से देश में बेरोजगारी बढ़ी है, पी-एच.डी. की बीमारी भी बढ़ी है। एम.ए. पास लड़के को जब नौकरी नहीं मिलती है, वह भागकर अपना रजिस्ट्रेशन करवा लेता है पी-एच.डी. के लिए और उसके बाप जी गर्व से कहते हैं–‘दहेज कम नहीं होगा। बेटा पी-एच.डी. कर रहा है, समझे!’

बेटा पी-एच.डी. कर रहा है। बाप पी-एच.डी. कर रहा है। लोग पी-एच.डी. कर रहे हैं। प्रोफेसर एक दूसरे को पछाड़ने के लिए पी-एच.डी. करवा रहे हैं। भले खुद ना करें, पर दर्जन के भाव से दूसरों को करवा कर खुद बिना पी-एच.डी. किए ही रिटायर हो रहे हैं। सचमुच देश पी-एच.डी. के ख़तरनाक दौर से गुज़र रहा है। पी-एच.डी. होने के दो दृश्य बतौर नमूने पेश हैं–

पहला दृश्य : शोधछात्र अपने गाइड की दहलीज पर खड़ा होकर कातर स्वर में पूछता है–‘तब सर, क्या हाल है हमारी थीसिस का?’ सर उदास होकर जवाब देते हैं–‘क्या करें वत्स, कुछ लिखने का मूड ही नहीं बन रहा है।’ तभी शोधछात्र गाइड की दहलीज लांघकर भीतर कूद जाता है और कहता है–‘लाइए सर, झोलवा दीजिए। मीट-मुर्गा ले आते हैं। आज हमारा भाई गैस का सिलिंडर भी पहुँचा जाएगा। आप फिकर ना करें। दू मन बासमती चावल हम आज शाम को आपके घर लाकर रख देंगे। हम अभी लौट के आते हैं। मैडम को बोल दीजिए, मसाला-वसाला तैयार करके रखेंगी।’

सर वत्स को झोला पकड़ाकर खींसें निपोरकर कहते हैं–‘आज हम भी सोचते हैं तुम्हारे थीसिस के एक चैप्टर में हाथ लगा ही दें।’ और उस शाम सर बैठकर थीसिस का चैप्टर लिख रहे थे, उधर शोधछात्र उनकी मैडम को शॉपिंग करवा रहे थे…।

दूसरा दृश्य : सर्विस के लिए इंटरव्यू में आई सहेलियाँ आपस में बातें कर रही हैं। एक सहेली दूसरी से पूछती है–‘क्यों रे, तेरी पी-एच.डी. का क्या हुआ?’ दूसरी सहेली रुआँसी होकर कहती है–‘क्या बताऊँ!’ मेरी गाइड बोलीं–‘ये बड़की बेटी हाईस्कूल में आ गई है। इसे ट्यूशन पढ़ाओ। तुम्हारी थीसिस हम पूरी करा देंगे। उसकी फिकर ना करो। तुम्हें डॉक्टरेट कराने का जिम्मा हमारा।’ मैं चार बरस से उसे पढ़ा रही हूँ। उनकी बड़की बेटी अब कॉलेज में आ गई है, पर हमारी पी-एच.डी. की थीसिस वहीं की वहीं है। अब वे कहती हैं–‘तनी हमारी छुटकी बेटी को पढ़ा दो। ऊ जरा मैट्रिक अच्छे से कर जाए तो हम निश्चिंत हो जाएँ।’ उसकी सहेली हँसकर कहती है–‘अरे, खैर मना! नियोजित फैमिली है तेरी गाइड की। कहीं चार-पाँच बच्चे होते तो तू उन्हें पढ़ाते-पढ़ाते बुढ़ा जाती।’

तो देखा आपने! लोग पी-एच.डी. कर रहे हैं। किसी भी तरह कर रहे हैं, क्योंकि करने को और कुछ नहीं है। वे बेकार हैं। यदि सरकार सबको रोजगार दे दे, तो मजाल है कोई पी-एच.डी. जैसा फालतू काम करे। पर वर्तमान स्थिति यही है कि बैठा बनिया क्या करे? इधर का धान उधर और उधर का धान इधर करे, एक ही बात है। थीसिस आखिर क्या है? इस गिलास का पानी, उस गिलास में और उस गिलास का पानी इस गिलास में। पानी एक है, पर गिलास बदलते रहते हैं। थीसिस की आत्मा एक है, पर लेखक, कागज, टाइप और बाइंडिंग बदलती रहती है। जिस तरह मनुष्य जीर्ण-शीर्ण वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, जिस तरह आत्मा जीर्ण-शीर्ण शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करती है, उसी प्रकार थीसिस भी नया कलेवर धारण करती है। इसकी माया अपरंपार है। कोई इसे समझ नहीं सकता है। परंतु कुछ हठधर्मी हैं जो इसका रहस्य जानने के लिए तप कर रहे हैं। उपवास कर रहे हैं। दूसरों की थीसिस को जाली कह रहे हैं। जो स्वयं माया है, उसमें जाल क्या और जाली क्या?

एक संदेह और भी है। हर नौकरी में पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। एक नेतागिरी ही ऐसी जगह है, जहाँ अँगूठा छाप होने पर भी काम चलता है और मज़े में चलता है। पर कुछ नेताओं के पी-एच.डी. करने से, दूसरों का अस्तित्व खतरे में है। इधर चुनाव आयोग बहुत कड़ा हो गया है। कहीं वह यह नियम लागू न कर दे कि पी-एच.डी. किया हुआ व्यक्ति ही नॉमिनेशन फाइल कर सकेगा। तब वोट देने से पहले जनता कहेगी, पहले पी-एच.डी. की थीसिस दिखाओ, फिर वोट माँगना। तब वोट माँगने वाले नेता के गले में हार नहीं, हाथों में पी-एच.डी. की थीसिस होगी। सचमुच, आज यह देश एक खतरनाक दौर से गुज़र रहा है। कहीं यह नियम लागू हो गया तो नेताओं का क्या होगा? उनके दौरों का क्या होगा? उन्हें तो खुद ही दौरे पड़ने लगेंगे। फिर वे वोट माँगने की बजाय यूनिवर्सिटी के चक्कर लगाकर गुहार करते फिरेंगे–‘एक कुर्सी के लिए, एक पी-एच.डी. का सवाल है बाबा, किसी तरह दिला दे बाबा।’


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गीता पुष्प शॉ द्वारा भी