वाह रे जी

वाह रे जी

वह आलोचक है। बहुत बड़ा है। बड़ा वह इसलिए नहीं है कि वह आलोचक है। वह आलोचक बड़ा है। उसकी ऊँचाई बाँस से भी ज्यादा है, ताड़ से भी ज्यादा है। उस का फैलाव, उसका दबाव पहाड़ से भी ज्यादा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अभी साहित्य में जितनी भी विधाएँ चल रही हैं, सब उसी के पाँवों से चल रही हैं, जितनी भी सुरम्य घाटियाँ, झील-झरने, हरियालियाँ हैं, सब उसी की कृपा के दृष्टि-निक्षेप से हैं। वह अकेला है, एकमात्र है। ऐसा कोई जो होता है, वह एक ही होता है, दो हो ही नहीं सकता। एक राज्य के दो राजा नहीं होते, एक मुल्क के दो बादशाह नहीं होते। वह भी राजा है, बादशाह है, साहित्य का एकछत्र शासक है। जैसा जो वह कहे, वही मान्य है, उतना ही बाध्यकारी भी है। वह इतिहास बदल देता है, नया इतिहास बनाता है। उसका निर्णय अंतिम है, अकाट्य है। किसी महाकवि के अधिकांश को वह कूड़ा घोषित कर दे तो वह है कूड़ा, किसी छोटकही कवि की दो कविताओं को कहीं उछाल दे तो वह चाँद पर पहुँच जाता है। उसी के निर्देशों में बनता है आदर्श, उसी की ‘कोट’ में से निकलता है अनुकरणीय।

वह स्वयं कुछ नहीं लिखता। एक छोटी-सी कविता नहीं, एक छोटी-सी कहानी नहीं, एक छोटा-सा लेख भी नहीं लिखता। एक चुटकुला भी नहीं लिखता, लेकिन लेखक वह बहुत बड़ा है। सारे लेखकों में सबसे बड़ा है, सबसे ऊपर है, जैसे दिन का सूरज होता है। उसी की रोशनी से चाँद में भी रोशनी है, उसी की जगमग से जग जगरमगर है, सर्वत्र आलोक है। उसकी ताकत इतनी है कि वह बैठे-बैठे अपनी कुर्सी से कैसा भी फतवा जारी कर सकता है, कोई उस की काट नहीं, कोई उसका विरोध नहीं। सब जगह वही बात होती है, उसी की चर्चा होती है, इश्तिहार लग जाते हैं, लेकिन आप को यह पता नहीं चलेगा कि आखिर उसके कहे को सर्वसाधारण लेखकों-विद्वानों-पाठकों ने किस रूप में ग्रहण किया है।

रवानगी मुलाकातों में लोग मुस्कराते भी हैं, कभी जरा हँस भी लेते हैं, लेकिन उसके लिए किसी कटुतिक्त या गलत शब्द का प्रयोग नहीं करते। वह शाहों का शाह, शहँशाह है। उसकी चलती के आगे सारी चालें व्यर्थ हैं, कुंठित हैं, कुंद हैं। सारे कवि-लेखक उस की प्रसन्नता के मुखापेक्षी हैं, उसके आशीर्वाद के आकांक्षी हैं, उसकी प्रशंसा के दो-एक शब्दों के लिए जन्मकाल से तड़प रहे हैं।
सिर्फ अपने विभाग, या सिर्फ अपने विश्वविद्यालय में ही नहीं, देश के सारे विश्वविद्यालयों में उसी का कहा चलता है, उसी का लोहा बिकता है। सारी ऊँची-बड़ी-भारी नियुक्तियाँ उसी की हाँ में तय पाती हैं। उसका मौन भी बहुत बड़ा होता है। वह शब्दों के प्रयोग के मामले में, खासकर इस बढ़े बुढ़ापे में आकर, बहुत कंजूस हो गया है। एक तो घंटे भर वह आप के साथ बैठेगा नहीं और यदि किसी बड़े संभाव्य लालच के आकर्षण के वशीभूत बैठ भी जाए तो इसे बहुत मानिए। लालच का चक्रव्यूह बड़ा जटिल होता है और बड़े-बड़े महारथी भी इस में फँस जाते हैं। वह भी फँस जाता है। असंभव नहीं कि वह आपकी कविताओं को अपनी नजरों के नीचे से भी गुजर लेने दे, लेकिन तब भी यह आशा मत कीजिए कि उसके बाद वह अपने मुँह से एक भी ऐसा शब्द निकलने देगा जिसका आपकी रचना या आपके पक्ष में कुछ अच्छा या अच्छा जैसा स्पष्ट अर्थ या उपयोग बनता हो। ऐसा तो वह आमतौर पर तयशुदा मजलिसों में जाकर भी नहीं होने देता।

बिना अप्वाइंटमेंट के आप उससे नहीं मिल सकते, मिलने की सोच भी नहीं सकते, इसके बावजूद कि वह घर पर ही हो और यों ही खाली बैठा हो। है तो वह मार्क्सवादी, लेकिन उसे अमेरिकी गेहूँ का बोरा ही समझिए, समंदर में डुबकी मार लेगा, लेकिन किसी भूखे देश के बंदरगाह पर नहीं उतरेगा। लेकिन, अप्वाइंटमेंट वह आप को दे देगा। प्रकटतः वह लोक-विमुख अपनी छवि कभी नहीं होने देता। आप गौर करेंगे तो उस के चेहरे में भी आप को सावधानी की एक कठोर लौह छवि दिखाई देगी। वह अपनी इस छवि के प्रति बहुत सचेष्ट रहता है। आप थोड़ा और गौर करेंगे तो पाएँगे कि जब कभी वह कुछ अटपटा जैसा बोल गया ध्वनित होता है, उस समय भी वह उतना ही सावधान होता है। दरअसल कभी इतना आसान नहीं रहा कि कोई उसकी गहराइयों को माप लें।

जब आप उसके आवास पर पहुँचेंगे, वह दरवाजा खोलेगा और आप को बैठा लेगा। फिर वह भी चुप और आप भी चुप। वह एक बार आपकी ओर देखेगा और फिर मुँह घुमा लेगा। आपको तब सहज ही एहसास हो जाएगा कि आपको अपने बारे में कुछ और बताना चाहिए। वह मिलने का प्रयोजन अवश्य पूछेगा। आप भले अनजान हों, या बनें, लेकिन उसे पता है कि प्रयोजन यही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। आप को संकोच होता है, आप बहुत विनम्र भी हैं लेकिन फिर भी बताना तो होगा आपको, कि ऐसा क्या किया है, क्या लिखा है आपने जो आप उस महान आलोचक को दिखाना चाहते हैं। आपको डर भी लगता है उससे, लेकिन आप का विश्वास आपका साथ देता है, आप की उम्मीद तब भी अपनी जगह पर कायम रहती है। अपने बारे में जो मनुष्योचित सहज संभ्रम होता है, वह यों ही जाता भी तो नहीं।

उस महान को भी लगता है, आप में संभावना बनती है, आप से कुछ प्राप्त हो सकता है। लालच का जीन सर्वाधिक अदृश्य, सर्वाधिक आकर्षक और सर्वाधिक सशक्त होता है। लालच यह आपका भी होता है। आप उसे फोन लगाते हैं, उससे बात करते हैं, वह आप को अनुमति दे देता है और आप इतनें में ही विह्वल-विभोर हो उठते हैं। आप को विश्वास नहीं आता जब वह कल-परसों का कोई डेट आपको दे देता है। यह कोई रोमांटिक डेट नहीं है, यह एकदम एंटी-रोमांटिक डेट है, लेकिन आपका उत्साह आप की प्रसन्नताओं में संतोष के ऊँचे-ऊँचे ज्वार उठता है और उन ज्वारोत्थानों के शीर्ष पर बैठे हुए भी आप लहराते-उछालते हुए होते हैं।

आप जानते हैं कि उसका जो रौब है, रुतवा है, जो उसका भाव है, जो उस की कीमत है। कीमत तो वह आप को भी अदा करनी है। वेश-भूषा उस की सादा है, लेकिन खाता उच्च है, पीता उच्चतम है। ऐसे जलसों में वह जरूर जाता है जहाँ ऐसी व्यवस्थाएँ होती हैं। आप उसके घर पर भी बहुत कुछ पहुँचा सकते हैं, वह आप की तरह न संकोच करेगा, न आप को मना करेगा। आप जानते हैं, साठोत्तर भारत का सबसे बड़ा प्रकाशक कौन है। आप अपनी कविताओं की, कहानियों की किताब वहाँ से प्रकाशित कराकर स्वयं भी समादृत होना चाहते हैं तो आप को महालोचक का आशीर्वाद प्राप्त करना होगा और यह सब ऐसे करना होगा कि आप की अपनी आँखों और कानों को भी पता नहीं चले। आजकल भाषा और साहित्य के सारे उद्योग-करोबार राजधानी से ही संचालित होते हैं। सब एक जगह हो जाने से अच्छा है, आप के लिए भी और उनके, उनके लिए भी।

आगे भी कथा-वार्ता चलेगी, लेकिन उधर कविजी काफी देर से बैठे हुए अधीर हो रहे हैं, उन्हें भी थोड़ा देख लें, उनसे भी मिल लें। कहीं कुछ उलटा-पलटा तो नहीं है?

संत-महात्मा कोई नहीं होता। जो होता है उसमें भी कितनी ही कमजोरियाँ होती हैं। और आजकल तो पूछिए मत। बड़े-बड़े बाबा हथियारों की तस्करी और बलात्कार के जुर्म में जेल की सीखचों के पीछे पड़े हैं। फिर हमारे कविजी तो शुद्धतः एक आम इंसान हैं, उनकी क्या बात, क्या औकात ?

हमारे कविजी वाकई एक अच्छे कवि हैं, बड़े कवि हैं, लेकिन अपना बड़प्पन उन्होंने कभी जताया नहीं, कोई दावा नहीं किया। बस वैसे ही उन्होंने अपनी जिंदगी जी जैसा कोई आम इंसान जीता है। अपनी कविताओं में भी वह कवि बनकर किसी ऊचे मंच से समाज को संबोधित नहीं हुए, बल्कि समाज के लोगों में से ही एक होकर रहा-जिया, देखा-परखा और लिखा।

कविता उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी कमजोरी थी। किशोरावस्था थी वह जब अचानक एक दिन उनके मुँह से छंद फूट निकला और चारों तरफ एक ऐसा प्रकाश फैल गया जिसमें संपूर्ण सृष्टि शून्यमान और विरल हो गई थी, सारे भेद-अभेद समाप्त हो गए थे। वह एक अत्यंत विशिष्ट एकता भी जिसमें सभी जीव-अजीव, लिंग-अलिंग, कर्म-अकर्म समस्त होकर निरवयव और निरपेक्ष हो गए थे, जब उनको उनका दर्शन मिला था, अनुभव और विचार का विज्ञान मिला था, उनको अपना ईमान मिला था।

शुरूआत के दिनों में तो कविता उन पर बरसती थी और वह भी परेशान-परेशान रहते थे। घूमते-टहलते, बैठे-बतियाते, नहाते-खाते, सोते-जागते यानी कभी भी कविता उन पर उफन-उफन कर आ जाती और इतना बेचैन कर देती कि फिर लिख लेने के बाद ही उन्हें चैन पड़ता। कई बार तो ऐसा भी होता कि एक कविता लिखते हुए ही, लगी-लगी दूसरी-तीसरी कविताएँ फूट आतीं। ऐसा भी होता है कि वह सोने के लिए अपने बेड में जाते, आँखें बंद होतीं और तभी कविता दिखने लगती। थोड़ी देर रुकते, लेकिन रुकना संभव कहाँ था ? उठना ही पड़ता। फिर पलटते, फिर सोने की कोशिश करते और फिर उठना पड़ जाता। खुद से तंग होते, कुढ़ते-झल्लाते, लेकिन कविता थी कि जान नहीं छोड़ती। और अक्सर ऐसा होता कि इसी तरह, खुद से लड़ते, खुद से हारते रात बीत जाती और वह सो नहीं पाते।

यह एक ऐसी अवशता की अवस्था थी जिसमें कविता की जीत पक्की थी तो कवि की हार उतनी ही पक्की थी, कवि अपनी सारी स्वप्नाकांक्षाएँ और उपलब्धि-लक्ष्य हारकर कविता में ही आसनस्थ हो गया था, जीवन की सभी महत्वाकाक्षाओं का सम्मान नहीं करता। उसके अनुसार महत्वाकांक्षा सर्वाधिक नशा-कारी व्यसन है, कि एक बार जो व्यक्ति अचेता हो जाता है, फिर उठ नहीं पाता। फिर कितनी सारी, कैसी-कैसी नीचताएँ! कहाँ रुकता है आदमी तब!

लेकिन हमारे कविजी आत्मजयी हैं, और इसी भूमि पर हैं और इसी समय में हैं। कविताओं के कई संग्रह उनके प्रकाशित हैं। कोलकाता-पटना से लेकर दिल्ली-भोपाल तक जो भी अच्छे पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं, सब उनको जानते हैं, लेकिन कभी उन्होंने अपने को किसी गुट-वर्ग से नहीं जोड़ा। ऐसा नहीं कि उनकी कोई पक्षधरता नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि इसके विपरीत, वह मानते हैं कि ऐसा कोई कवि हो नहीं सकता जो अपना कोई वैचारिक पक्ष नहीं रखता हो, ऐसा भी नहीं कि कविता का जन्म किसी ऐसी वैचारिक पक्षधरता में ही होती हो। फिर भी एक बात अवश्य है कि कविता सारे विवादों के ऊपर, एक संवाद की स्थापना में जन्म लेती है और यह संवाद स्थापित होता है प्रत्येक मनुष्य के भीतर की अखंड और अविभाजित मनुष्यता में। इसीलिए कविता न तो निर्विकल्प हो सकती है, न निर्विपक्ष ही, यह सत्य है।

अक्सर ऐसा हुआ है कि उसके अनेक मित्रों, बड़े मित्रों ने आमने-सामने उसकी प्रशंसाओं में अपना गला सुखा-जला लिया है, फोन पर बात करते हुए इतनी दूर तक चले गए हैं, कि कवि को स्वयं उन्हें रोकना पड़ गया है। लेकिन क्यों ? या फिर हवा में ही क्यों, लिखकर क्यों नहीं?- यही तो बात है! वे कवि के सच को स्वीकारते हैं, लेकिन उसका लाभ नहीं देते, यह दूसरी बात है कि कवि को स्वयं इस प्रशस्तियों और पुरस्कारों में कभी रुचि नहीं रही। कभी उसने अपनी-किसी पुस्तक का ब्लर्ब किसी से नहीं लिखाया, भूमिका-प्रस्तावना नहीं लिखाई, कभी कोई लोकार्पण समारोह नहीं आयोजित किया-कराया।

इसका नुकसान भी उठाया। बड़े प्रकाशक नहीं मिले, पत्रिकाओं में समीक्षाएँ नहीं आई, और सब से बड़ा नुकसान कि दूरतर क्षेत्रों के पाठकों में प्रवेश नहीं मिला। पुस्तकों की बढ़ती अनुपलब्धता अलग से एक नई समस्या सिर उठा रही है।

लेकिन हमारे कवि पर इन सब बातों का कोई फर्क नहीं। लगता है कि वह कवि ही पैदा हुआ है, खुद में ही खोया-डूबा। सारे संघर्ष भी उसे संघर्षों तक ही ले जाते हैं, कहीं कोई हल नहीं मिलता। उसका सच भी उसे कमजोर ही बनाता है। वकालत छोड़ दी और कैसी-जगह में स्टेशनरी की एक दुकान खोलकर बैठ गया। वह दुकान भी धीरे-धीरे साहित्यिक मटरगश्ती का अड्डा बन गया। परिवार पर अकाल का शासन और उस पर, काल का। अपने बस में कुछ भी नहीं। पिता कोंचते थे, लिखना ही है तो उपन्यास लिखो, लोग पढ़ते हैं, किताब बिकती है। पत्नी कोंचती है, लिखना छोड़ क्यों नहीं देते, क्या होता है लिखकर ?

कैसी विडंबना है ? समाज कवि को जानता है, सदियों से जानता है, आलोचक को नहीं जानता, आज भी नहीं जानता। आज भी उसे छात्र पढ़ते हैं, शिक्षक पढ़ते हैं, या फिर छोटे-बड़े दूसरे कवि-आलोचक पढ़ते हैं, समाज आलोचक को आज भी नहीं पढ़ता। कविता अब भी समाज में है, लेकिन अब कविता के पाठक रह कितने गए हैं ? कौन खरीदेगा कविता की किताबें ? कौन छापेगा कविता की किताबें ? बस एक ही उपाए है, अपने ही व्यय पर संग्रह निकालो-निकलवाओ और कोई पुरस्कार-वुरस्कार की टिप्पस भिड़ाकर अपने पैसे निकाल लो।

लेकिन आलोचना की किताब बिकती है, खूब बिकती है। साहित्य विधाओं में उसकी माँग बढ़ी ही है, कम नहीं हुई है। कुछेक दशक पूर्व तक ऐसा ही था कि कवि उदाहरण रचता था, नवीनताएँ रचता था और आलोचक उन उदाहरणों और नवीनताओं के आलोक में समय और साहित्य की नई पहचान तय करता था, नए मानक स्थापित करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। आलोचक अब मित्र, सहयोगी और सहायक नहीं रहा, वह अधिनायक बन गया है। कविता और आलोचना अब परस्पर प्रतिद्वंद्वी ही अधिक हैं, और इस द्वंद्व में कविता पराजित हुई है, आलोचना जश्न पर है।

एप्वाइंटेड तारीख और वक्त पर कवि पहुँच जाता है। आलोचक अपनी बैठक के दरवाजे खोलता है। कवि सामने हुआ दोनों हाथ जोड़ देता है।

‘आइए।’ बोलकर, आलोचक अपनी महिमामयी कुर्सी में बैठ जाता है। कवि को अभी भी खड़ा देखकर बगल की ओर रखी एक कुर्सी की तरफ हाथ उठाता है। कवि भीतर ही भीतर हाँफ रहा है। दो-एक मिनट की चुप्पी।

‘क्या है, दिखाइए।’

कवि ने अपने नए संग्रह की टंकित पांडुलिपि आगे की ओर बढ़ा दी। आलोचक इधर-उधर उलटते-पलटते जल्दी ही पांडुलिपि के अंत पर पहुँच जाता है जहाँ उसे कवि का एक संक्षिप्त परिचय संलग्न किया हुआ मिल जाता है।

‘काफी पुस्तकें प्रकाशित हैं।’

कवि चुप ही रहता है।

‘कभी पहले नहीं पढ़ा आपको ?’

कवि क्या बोले ?

‘पहले भी कभी मिले क्या ?’

‘नही।’

‘क्यों ?’

‘ऐसे ही, शायद संकोचवश।’

‘संकोच क्यो? आप वरिष्ठ लेखक है, इतना कुछ आपने काम किया है, आप मिल सकते थे।’

‘जी, कभी ऐसा अवसर नहीं बना।’

आलोचक -महान पुनः पांडुलिपि के पहले सिरे पर आ जाता है और संग्रह की कविताओं पर रुकता है, बढ़ता है, बढ़ता जाता है। इसमें करीब आधे घंटे का वह समय लगाता है। माना जा सकता है कि उस की विराटता और उच्चस्थता को देखते हुए यह समय कम नहीं है। कवि भी अभिभूत हुआ उसी के चेहरे की ओर देखता रहा, उसी तरह चुपचाप। उस को लग रहा है, आज जन्म सफल हो गया, कि अब वह शीघ्र ही एक बड़ा और देश-प्रसिद्ध कवि हो जाएगा। आलोचक की आखें अब कवि का चेहरा पढ़ने लगी। कवि के चेहरे में वज्र सन्नाटा।

‘आप मुझसे क्या चाहते हैं ?’

‘कुछ मित्रों ने कहा, मैं आप से मिलूँ, आपकी सलाह लूँ।’-कवि का साहस चुक गया, ज्यादा कुछ बोल नहीं पाया।

‘कविताएँ अपनी तरह की हैं। इनको पाठकों के समक्ष आना चाहिए।’-आलोचक ने सूत्र आगे किया। कवि भी कुछ चाह रहा है बोलना, लेकिन अपनी ही कठोर सिद्धांतनिष्ठता से बंधा बोल नहीं पाता है, यह जानते हुए भी कि आजकल सब कुछ होता है और कई विषम-विभिन्न भागीदारियों की एक लंबी गुप्त शृंखला हिंदी के प्रकाशन-तंत्र पर मजबूती से हावी है।

महालोचक लेकिन अवतार पुरुष है। वह महाकवि के मन की मुश्किल सहज ही पढ़ लेता है-‘मैं तो किसी को कह नहीं सकता। मैं ऐसा करता नहीं।’

कवि अपना साहस अब भी एकत्र नहीं कर पाता, नहीं कुछ कह पाता।

महालोचक भी पसोपेश में, कब तक इस मूर्ख को इस तरह बैठाए रखेगा। वह अगला तीर छोड़ता है, नोक भी थोड़ी सीधी कर देता है।

‘पहले मैं ब्लर्ब कर देता था, लेकिन पिछले कुछ वर्ष से मैं अब किसी किताब पर नहीं लिखता….यदि लिख पाता तो मुझे भी अच्छा लगता।’

कवि समझ रहा था कि जो शब्दों में गुप्त है, वही एक प्रस्ताव भी है। उसे भी कई बार अब यही लगता है कि उसके आदर्श अब उसकी बड़ी कमजोरियाँ बन गए हैं, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाता। महालोचक अब अपना तीसरा पक्ष खोलता है, ‘आप ऐसा करें, इस पर कोई कार्यक्रम रखें। मैं आऊंगा और बोलूँगा। आप देखें कि जो मैं बोलता हूँ, आप उसे टेप कर लें और लिखकर ले आएँ, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूँगा। तब संदेह-विवाद की भी कोई बात नहीं होगी।’

कवि भक्, वाग्विमूढ़! क्या बोले?

आलोचक जारी रहता है, ‘प्रकाशन से पूर्व यदि ऐसा कोई अवसर नहीं बनता है। तो प्रकाशन के बाद, लोकार्पण पर मुझे बुलाएँ। तब भी कोई विशेष असुविधा नहीं होगी। ऊपर का आवरण बदल दीजिएगा और मेरा वक्तव्य उस पर डाल दीजिएगा। ऐसा होता है कि ऐसा लोग करते हैं।’

कवि भक्, एकदम भौचक! वाह रे वाद, वाह रे सिद्धांत! वाह रे महान आलोचक, साहित्य के महान मार्गदर्शक, महान ध्वज-धारक….सर्वसंहारक!

बड़ी मुश्किल से उस के मुँह से निकला ….जी, मन में उसका अपना ही शब्द विकृत हो रहा था….. वाह रे जी!


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Artist: Henri Martin WikiArt
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शिवशंकर मिश्र द्वारा भी